गोपाल चालीसा
श्री कृष्ण भगवान का गोपाल नाम कैसे पड़ा ?
भगवान् के अवतार के अनेक उद्देश्यों में गायों की पूजा एवं संरक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, क्योंकि गायोंके अन्दर सभी देवताओंका निवास है। गाय सर्वदेवमयी है।
गाय की पूजा से सभी देवताओंकी पूजा हो जाती है तथा उनका आशीर्वाद भी प्राप्त हो जाता है। इस संसारमें गायका माँ जैसा ही स्थान है, क्योंकि वह माँकी तरह ही वात्सल्यकी साकार मूर्ति है। इसीलिये गोपाल ने अपना बचपन गो-पूजासे आरम्भ कर अपना गोपाल नाम सार्थक किया।
गोपालको गायें अत्यन्त प्रिय थीं। वे उनकी खूब सेवा करते थे। एक दिन भगवान् श्रीकृष्णने अपने सखाओंसे कहा-‘मित्रो! संसारमें गाय-जैसा उपकारी और कोई नहीं है।
यह हमें अमृतके समान दूध, दही, घी देकर माँकी तरह हमारा पोषण करती है, अतः यह माँकी तरह वन्दनीया तथा पूजनीया है। आज गोपाष्टमी है। हमलोग गोमाताका खूब अच्छी तरह फूलों तथा रत्नोंसे श्रृंगार करेंगे।
उन्हें नाना प्रकारके पकवान अर्पित करेंगे तथा सभी उपचारोंसे उनकी भलीभाँति पूजा करेंगे। संसारमें गो-सेवा और गो-पूजासे बड़ा और कोई पुण्य नहीं है तथा उनके आशीर्वादसे बड़ा देव मुनि किसीका आशीर्वाद नहीं है।
गायोंकी पूजा ईश्वर-पूजा है, इनकी सेवा और पूजा करनेवालेको संसारकी कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है। इसलिये आज हम सब इन वात्सल्यमयी गो माताओंकी सेवा करके इनके अनन्त उपकारोंके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे।’
गोपाल के आदेशकी देर थी कि सभी गोपबालकोंने गेंदा, मालती, गुड़हल, कमल आदि अनेक प्रकारके पुष्पोंका ढेर लगा दिया।
सब लोगोंने मिलकर गायोंका विविध प्रकारसे श्रृंगार किया, उन्हें अनेक प्रकारके हार तथा फूल-मालाएँ पहनायीं तथा उनके गलेमें मधुर ध्वनि करनेवाली घंटियाँ बाँधीं।
भगवान् श्यामसुन्दरने स्वयं गायोंको सजाया तथा उन्हें नाना प्रकारके पकवान खिलाये।
सभी गायोंने शान्त भावसे खड़ी होकर उनकी पूजा ग्रहण कीं तथा मन-ही-मन अपने मूक आशीर्वादों से ग्वालबालोंकी झोलियाँ भर दीं। अन्तमें सभी ग्वालबालोंके साथ गोपाल ने गायोंसे बचा हुआ प्रसाद बड़े ही प्रेमसे ग्रहण किया।
चालीसा
गोपाल चालीसा एक भक्ति गीत है जो भगवान गोपाल पर आधारित है।
गोपाल भगवान कृष्ण का ही एक और नाम है। गोपाल का अर्थ है गौ रक्षक ||
॥ दोहा ॥
श्री राधापद कमल रज, सिर धरि यमुना कूल। वरणो चालीसा सरस, सकल सुमंगल मूल ॥
॥ चौपाई ॥
जय जय पूरण ब्रह्म बिहारी । दुष्ट दलन लीला अवतारी ॥
जो कोई तुम्हरी लीला गावै। बिन श्रम सकल पदारथ पावै॥
श्री वसुदेव देवकी माता। प्रकट भये संग हलधर भ्राता ॥
मथुरा सों प्रभु गोकुल आये । नन्द भवन में बजत बधाये ॥
जो विष देन पूतना आई । सो मुक्ति दै धाम पठाई ॥
तृणावर्त राक्षस संहार्यौ। पग बढ़ाय सकटासुर मार्यौ॥
खेल खेल में माटी खाई। मुख में सब जग दियो दिखाई ॥
गोपिन घर घर माखन खायो । जसुमति बाल केलि सुख पायो॥
ऊखल सों निज अंग बँधाई। यमलार्जुन जड़ योनि छुड़ाई॥
बका असुर की चोंच विदारी । विकट अघासुर दियो सँहारी॥
ब्रह्मा बालक वत्स चुराये । मोहन को मोहन हितआये॥
बाल वत्स सब बने मुरारी । ब्रह्मा विनय करी तब भारी॥
काली नाग नाथि भगवाना। दावानल को कीन्होंपाना॥
सखन संग खेलत सुख पायो । श्रीदामा निज कन्ध चढायो॥
चीर हरन करि सीख सिखाई। नख पर गिरवर लियो उठाई ॥
दरश यज्ञ पत्निन को दीन्हों| राधा प्रेम सुधा सुख लीन्हों ॥
नन्दहिं वरुण लोक सों लाये । ग्वालन को निज लोक दिखाये ॥
शरद चन्द्र लखि वेणु बजाई। अति सुख दीन्हों रास रचाई॥
अजगर सों पितु चरण छुड़ायो । शंखचूड़ को मूड़ गिरायो ॥
हने अरिष्टा सुर अरु केशी । व्योमासुर मार्यो छल वेषी ॥
व्याकुल ब्रज तजि मथुरा आये । मारि कंस यदुवंश बसाये ॥
मात पिता की बन्दि छुड़ाई। सान्दीपनि गृह विद्या पाई ॥
पुनि पठयौ ब्रज ऊधौ ज्ञानी । प्रेम देखि सुधि सकल भुलानी॥
कीन्हीं कुबरी सुन्दर नारी।हरि लाये रुक्मिणि सुकुमारी॥
भौमासुर हनि भक्त छुड़ाये । सुरन जीति सुरतरु महि लाये॥
दन्तवक्र शिशुपाल संहारे। खग मृग नृग अरु बधिक उधारे ॥
दीन सुदामा धनपति कीन्हों । पारथ रथ सारथि यश लीन्हों ॥
गीता ज्ञान सिखावन हारे । अर्जुन मोह मिटावन हारे॥
केला भक्त बिदुर घर पायो।युद्ध महाभारतरचवायो॥
द्रुपद सुता को चीर बढ़ायो । गर्भ परीक्षित जरत बचायो ॥
कच्छ मच्छ वाराह अहीशा बावन कल्की बुद्धि मुनीशा ॥
ह्वै नृसिंह प्रह्लाद उबार्यो।राम रुप धरि रावण मार्यो॥
जय मधु कैटभ दैत्य हनैया । अम्बरीय प्रिय चक्र धरैया ॥
ब्याध अजामिल दीन्हें तारी। शबरी अरु गणिका सी नारी ॥
गरुड़ासन गज फन्द निकन्दन । देहु दरश ध्रुव नयनानन्दन॥
देहु शुद्ध सन्तन कर सङ्गा बाढ़ प्रेम भक्ति रस रङ्गा ॥
देहु दिव्य वृन्दावन बासा। छूटै मृग तृष्णा जग आशा ॥
तुम्हरो ध्यान धरत शिव नारद । शुक सनकादिक ब्रह्म विशारद॥
जय जय राधारमण कृपाला। हरण सकल संकटभ्रम जाला ॥
बिनसैं बिघन रोग दुःख भारी । जो सुमरैं जगपति गिरधारी ॥
जो सत बार पढ़े चालीसा । देहि सकल बाँछित फल शीशा ॥
॥ छन्द ॥
गोपाल चालीसा पढ़े नित, नेम सों चित्त लावई । सो दिव्य तन धरि अन्त महँ, गोलोक धाम सिधावई॥
संसार सुख सम्पत्ति सकल, जो भक्तजन सन महँ चहैं। ‘जयरामदेव’ सदैव सो, गुरुदेव दाया सों लहैं ॥
॥ दोहा ॥
प्रणत पाल अशरण शरण, करुणा-सिन्धु ब्रजेश । चालीसा के संग मोहि, अपनावहु प्राणेश॥जय जय पूरण ब्रह्म बिहारी । दुष्ट दलन लीला अवतारी ॥
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