श्री शाकम्भरी चालीसा
मां शाकम्भरी दुर्गा माता का सौम्य स्वरूप है। मां शाकंभरी कल्याण के लिए पृथ्वी पर आए थी। इनकी चार भुजाएं हैं और इन्हें वनस्पति की देवी भी कहा जाता है। मां शाकम्भरी के दर्शन और पूजन से अन्य धन-धान्य और अक्षय फल की प्राप्ति होती है ।
माँ शाकम्भरी की कथा
एक बार धरती पर अकाल पड़ गया था और धरती बंजर हो गई थी। पेड़ पौधे और वनस्पतियां नष्ट होने लगे थे । फिर सभी देवताओं ने मिलकर देवी की स्तुति प्रारंभ की ।उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर माँ भगवती शाकम्भरी देवी के रूप में प्रकट हुई ।उसी समय जोरों की वर्षा शुरू हो गई और चारों तरफ हरियाली छा गई। उस दिन पौष मास की पूर्णिमा थी इसीलिए पौष मास की पूर्णिमा को शाकम्भरी जयंती के रूप में मनाया जाता है।
शाकम्भरी चालीसा एक भक्ति गीत है जो शाकम्भरी माता पर आधारित है।
॥ दोहा ॥
बन्दउ माँ शाकम्भरी, चरणगुरू का धरकर ध्यान । शाकम्भरी माँ चालीसा का,करे प्रख्यान॥
आनन्दमयी जगदम्बिका, अनन्त रूप भण्डार।
माँ शाकम्भरी की कृपा,बनी रहे हर बार॥
॥ चौपाई ॥
शाकम्भरी माँ अति सुखकारी । पूर्ण ब्रह्म सदा दुःख हारी॥
कारण करण जगत की दाता । आनन्द चेतन विश्व विधाता ॥
अमर जोत है मात तुम्हारी । तुम ही सदा भगतन हितकारी॥
महिमा अमित अथाह अर्पणा । ब्रह्म हरि हर मात अर्पणा ॥
ज्ञान राशि हो दीन दयाली । शरणागत घर भरती खुशहाली ॥
नारायणी तुम ब्रह्म प्रकाशी। जल-थल नभ हो अविनाशी ॥
कमल कान्तिमय शान्ति अनपा। जोत मन मर्यादा जोत स्वरुपा॥
जब जब भक्तों ने है ध्याई । जोत अपनी प्रकट हो आई॥
प्यारी बहन के संग विराजे । मात शताक्षि संग ही साजे ॥
भीम भयंकर रूप कराली। तीसरी बहन की जोत निराली ॥
चौथी बहिन भ्रामरी तेरी। अद्भुत चंचल चित्त चितेरी॥
सम्मुख भैरव वीर खड़ा है। दानव दल से खूब लड़ा है ॥
शिव शंकर प्रभु भोले भण्डारी । सदा शाकम्भरी माँ का चेरा॥
हाथ ध्वजा हनुमान विराजे । युद्ध भूमि में माँ संग साजे ॥
काल रात्रि धारे कराली । बहिन मात की अति विकराली ॥
दश विद्या नव दुर्गा आदि। ध्याते तुम्हें परमार्थ वादि॥
अष्ट सिद्धि गणपति जी दाता। बाल रूप शरणागत माता॥
माँ भण्डारे के रखवारी । प्रथम पूजने के अधिकारी ॥
जग की एक भ्रमण की कारण शिव शक्ति हो दुष्ट विदारण ॥
भूरा देव लौकड़ा दूजा। जिसकी होती पहली पूजा ||
बली बजरंगी तेरा चेरा । चले संग यश गाता तेरा ॥
पाँच कोस की खोल तुम्हारी। तेरी लीला अति विस्तारी॥
रक्त दन्तिका तुम्हीं बनी हो । रक्त पान कर असुर हनी हो ॥
रक्त बीज का नाश किया था। छिन्न मस्तिका रूपलिया था ॥
में आप सिद्ध योगिनी सहस्या राजे सात कुण्ड विराजे ॥
रूप मराल का तुमने धारा । भोजन दे दे जन जन तारा ॥
शोक पात से मुनि जन तारे।शोक पात जन दुःख निवारे ॥
भद्र काली कमलेश्वर आई। कान्त शिवा भगतन सुखदाई ॥
भोग भण्डारा हलवा पूरी। ध्वजा नारियल तिलक सिंदुरी ॥
लाल चुनरी लगती प्यारी । ये ही भेंट ले दुःख निवारी ॥
अंधे को तुम नयन दिखाती। कोढ़ी काया सफल बनाती॥
बाँझन के घर बाल खिलाती । निर्धन को धन खूब दिलाती ॥
सुख दे दे भगत को तारे।साधु सज्जन काज संवारे ||
भूमण्डल से जोत प्रकाशी । शाकम्भरी माँ दुःख की नाशी ॥
मधुर मधुर मुस्कान तुम्हारी । जन्म जन्म पहचान हमारी॥
चरण कमल तेरे बलिहारी । जै जै जै जग जननी तुम्हारी॥
कान्ता चालीसा अति सुखकारी । संकट दुःख दुविधा सब टारी ॥
जो कोई जन चालीसा गावे। मात कृपा अति सुख पावे ॥
कान्ता प्रसाद जगाधरी वासी । भाव शाकम्भरी तत्व प्रकाशी॥
बार बार कहें कर जोरी । विनती सुन शाकम्भरी मोरी॥
मैं सेवक हूँ दास तुम्हारा। जननी करना भव निस्तारा ॥
यह सौ बार पाठ करे कोई। मातु कृपा अधिकारी सोई॥
संकट कष्ट को मात निवारे। शोक मोह शत्रु न संहारे ॥
निर्धन धन सुख सम्पत्ति पावे। श्रद्धा भक्ति से चालीसा गावे ॥
नौ रात्रों तक दीप जगावे । सपरिवार मगन हो गावे ॥
प्रेम से पाठ करे मन लाई । कान्त शाकम्भरी अति सुखदाई॥
॥ दोहा ॥
दुर्गा सुर संहारणि,करणि जग के काज । शाकम्भरी जननि शिवे, रखना मेरी लाज ॥
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