श्रावण महात्म्य पाँचवां अध्याय – shravan maas panchwa adhyay

श्रावण महात्म्य पाँचवां अध्याय

श्रावण महात्म्य पाँचवां अध्याय

ईश्वर ने कहा- सनत्कुमार कोटिलिंग का महात्म्य तथा पुण्य का विधान नहीं कहा जा सकता है। जब एकलिंग महात्म्य की कथा कहना असम्भव है तो कोटिलंगों के महात्म्य को कौन कह सकता है। इस महीने में एक लिंग के बनाने से भी जीव मेरे पास निवास करता है।

भक्ति द्वारा मन कामदेव के शत्रु भगवान श्री शंकर का षडक्षर ‘ॐनमः शिवाय’ मन्त्र के सहित अर्चन कर ग्रहयज्ञ कर उद्यापन करें। हवन करें तथा ब्राह्मण को भोजन करायें। इस मास के व्रत करने से असमय में मौत नहीं होती। इस मास का व्रत लिंगार्चन वन्ध्यात्त्व को हरण कर सम्पूर्ण आपत्ति को दूर करता है तथा सब की वृद्धि करने वाला है।

जो प्राणी पंचामृत से श्रावण मांस में अभिषेक करता है, वह इस देह को छोड़ कैलाश में मेरे नजदीक आकर एक कल्प तक निवास कर सकता है। वह प्राणी पंचामृत पीने वाला, गौ तथा धन आदि से युक्त अधिक मधुरभाषी त्रिपुरासुरहन्ता श्री शंकर प्रिय होता है।

जो इस महीने में पत्तल पर भोजन करता है, वह सोने के पात्र में भोजन करने वाला होता तथा शाक त्यागने मात्र से शाक का कर्ता होता है, मनुष्यों में उत्तम होता है। जो भूमि में ही में शयन करता है, वह कैलाश में निवास करता है।

जो इस श्रवण मास में अति सुबह एक दिन भी नहाता है, उसे एक महीने तक नहाने का फल मिलता है। इस महीने में जितेन्द्रिय होने से इन्द्रियजन्य बल प्राप्त होता है।

इस महिने में स्फटिमणि, पाषाण, मिट्टी तथा मरकतमणि निर्मित शिवलिंग में या पीतल आदि चन्दन निर्मित शिवलिंग में या स्वयं उत्पन्न या बनाये हुए या पिसान निर्मित या पीतल आदि, चन्दन, मक्खन या किसी निर्मित शिवलिंग में एक बार अर्चन करने मात्र से १०० ब्रह्महत्या भस्म हो जाती हैं।

सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, अन्य किसी सिद्ध क्षेत्र में लक्ष जप करने से जौ सिद्धि कही गयी है, वह इस महीने में सिद्धि एक बार जप करने से मिल सकती है।

दूसरे समय में किये गए नमस्कार तथा प्रदक्षिणा से जो एक हजार का फल मिलता है। वह फल इस महीने में एक बार करने मात्र से मिल सकता है। मुझे प्रिय इस श्रावण महीने में वेद पारायण करने पर सब वेद मन्त्रों की अच्छी तरह सिद्धि हो सकती है।

इस महीने में बिना पुरुषसूक्त पाठ के एक दिन भी न बितावें। जो इसको अर्थवाद मात्र कहता है, वह प्राणी नरक को जाता है। समिधा, चरु, तिल और घी से ग्रहयज्ञ करे । धूप, गन्ध, पुष्प, नैवेद्य आदि के भेद द्वारा अर्चन करें।

शंकर के रूपों का यथोचित ध्यान कर शक्ति द्वारा कोटिहोम, लक्षहोम और अयुत हवन करें। तिलों के व्याहृति मन्त्रों से हवन करें। इसी को ‘ग्रहयज्ञ’ नाम कहा गया है।

हे सनत्कुमार! अब मैं ‘वार’ व्रत कहूँगा, आप सुनें। हे अनघ! आप से पहले रविवार व्रत को कहूँगा । रमणीय प्रतिष्ठान पुर में सुकर्मा नाम का एक दरिद्र ब्राह्मण तथा कृपण भिक्षा वृत्तियों में घूमता था ।

एक दिन सुकर्मा ब्राह्मण ने धान्य भिक्षा के लिए तिष्ठानपुर में घूमते हुए किसी गृहस्थ के घर में स्त्रियों को देखा। वे स्त्रियां आपस में मिल-जुल कर रविवार के उत्तम व्रत को कर रही थीं। उसी समय उस ब्रह्मण को देख, उन स्त्रियों ने अर्चन को जल्दी ही ढंक दिया। उस ब्रह्मणदेव ने उन स्त्रियों से अर्चन विधि को जानने की जिज्ञासा की।

हे साध्वी-स्त्रियों! आप सबने क्यों इस व्रत को ढंक दिया। आप दयालु हैं, मुझ पर कृपा कर, इस व्रत की विधि कहें। क्योंकि परोपकार के तुल्य तीनों लोकों में अन्य धर्म नहीं। समदृष्टि रखने वाले साधु पुरुषों का तो परोपकार ही स्वार्थ है।

दरिद्रावस्था से मैं दुखी हूँ, यह उत्तम व्रत श्रवण कर व्रत को मैं भी करूँगा । इस व्रत के विधान तथा फल को कहिये। स्त्रियों ने कहा- हे द्विज! यदि व्रत में उन्माद या प्रसाद, विस्मरण, भक्ति हीनता या अनास्था करेंगे तो इस व्रत को तुम्हें कैसे दें।

उनकी ऐसी वाणी को श्रवण कर उत्तम ब्राह्मण ने कहा- हे स्त्रियो! मैं ज्ञानी तथा भक्ति युक्त उत्तम व्रत को करने वाला हूँ। इस तरह उनकी वाणी सुनकर उन स्त्रियों में से एक प्रौढ़ा स्त्री ने रविवार के व्रत तथा उसकी विधि उससे कही। श्रावण के शुक्ल पक्ष के पहले रविवार को मौन होकर उठें।

ठंडे पानी से स्नान कर, नित्य कर्म कर, पान के पत्ते पर बारह परिधि वाला पण्डल लिखे। उसको लाल चन्दन द्वारा सूर्यनारायण के तुल्य गोलआकार में लिखें, उस मंडल में संज्ञा नाम वाली स्त्री के सहित सूर्य का लाल चन्दन से पूजन करें।

नारिकेल बीज और खांड शर्करा से युक्त सूर्य के मन्त्रों को कहकर नैवेद्य दें। सूर्य के बारह मन्त्रों

द्वारा स्तवन करें बारह बार नमस्कार करें, बारह बार प्रदक्षिणा करें और छः सूत को एक में मिलाकर उसमें छः ग्रन्थी लगावे। उस सूत्र को सूर्यनारायण को अर्पण कर उसे अपने कंठ में बांध लें।

बारह फल से सम्पन्न वायन ब्राह्मण को दे। इस व्रत की विधि को किसी से न कहनी चाहिये। हे विप्र ! इस प्रकार व्रत के करने से निर्धन प्राणी धनवान हो जाता है, पुत्रहीन प्राणी पुत्र प्राप्त कर सकता है, कोढ़ी कोढ़ से छुटकारा पा जाता है।

हे विपेन्द्र ! विशेष क्या कहा जाये। साधक जिस वस्तु की अभिलाषा करता है, वह सब इस व्रत के प्रभाव मात्र से प्राप्त कर लेता है। इस तरह श्रावण मास में चार रविवार या पांच रविवार व्रत करें।

व्रत की सम्पूर्ण फल की इच्छा के लिए उद्यापन करें। हे विपेन्द्र ! इस प्रकार व्रत करने मात्र से सिद्धि होती है। वह ब्राह्मण उन साध्वी स्त्रियों को नमस्कार कर अपने घर चला आया ।

जैसा सुनकर वह घर आया था, वैसी सब विधि द्वारा उस व्रत को अपनी दोनों कन्याओं को भी व्रत विधि बतायी। उस व्रत को सुनने से और अर्चन तथा दर्शन मात्र से दोनों कन्याएं देवांगना के तुल्य व्रत विधि के प्रभाव मात्र से सुन्दर हो गई, उसी दिन से उस विप्र के घर में लक्ष्मी निवास करने लगी। अनेक रास्तों से अनेक निमित्तों सहित वह ब्राह्मण उस दिन से लक्ष्मी पति हो गया ।

किसी राजा ने उसी ब्राह्मण के घर के समीप रास्ते से होकर निकलते हुए अति सुन्दर उन दोनों कन्याओं को बरामदे या खिड़की पर बैठे देखा।

दोनों कन्याऐ अपनी देह के अवयवों से त्रैलोक्य के सम्पूर्ण उत्तम चीजों को तथा कमल और चन्द्रमा को भी अपमानित करती थीं, उन बालिकाओं को देखने से राजा मोहित हो क्षणभर वहाँ स्थिर हो गया।

राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर उन दोनों बालिकाओं के लिए याचना की। ब्राह्मण ने भी प्रसन्न हो दोनों बालिकाओं को राजा को दे दिया। वे दोनों बालिकायें राजा को स्वामित्व के रूप में प्राप्त कर प्रसन्न हो गयीं। प्रसन्नचित्त हो बालिकायें इन व्रत के प्रभाव से पुत्रपौत्रादि से युक्त हुई । हे मुने! बड़े अभ्युद को करने वाले इस व्रत को आपसे कहा ।

श्रावण महात्मय अध्याय

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श्रावण महात्म्य दूसरा अध्याय
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