श्रावण महात्म्य सातवाँ अध्याय – shravan maas satva adhyay

श्रावण महात्म्य सातवाँ अध्याय

श्रावण महात्म्य सातवाँ अध्याय

ईश्वर ने कहा- हे सनत्कुमार! अब उत्तम मंगलवार का व्रत कहूँगा। जिसके करने से वैधव्य का नाश होता है। विवाहोत्तर पांच साल तक इस व्रत को करें। इसका नाम ‘मंगलागौरी व्रत है।

यह पाप को नष्ट करने वाला है। विवाह के अनन्तर पहले श्रावण शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार के दिन इस व्रत का शुभारम्भ करें। पुष्प मण्डप निर्माण कर उसे कदलीस्तम्भ से शोभित करे।

नाना तरह के फलों तथा रेशमी कपडों से विभूषित कर, उसमें देवी की प्रतिमा स्थापित करें। यथाशक्ति उस प्रतिमा का अर्चन करे। उस प्रतिमा में मंगलागौरी का षोडश उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों और सोलह चिड़चिड़ा दलों से सोलह चावल तथा सोलह चने की

दाल से अर्चन करें। सोलह बत्तियों का एक दीपक हो या सोलह दीप जलाकर, भक्ति द्वारा दही तथा चावल का नैवेद्य समर्पण करें। देवी के नजदीक सिल, लोढ़ा रखें। इस प्रकार पांच साल तक व्रत करें। फिर उद्यापन कर माता को वायन दे। वायन का प्रकार सुने।

मंगलागौरी की एक सोने की प्रतिमा या आधे पल या आधे के आधे पल या यथाशक्ति सोने की प्रतिमा बनवावें। शक्त्यनुसार सोने या चांदी आदि से निर्मित घड़े को चावल से भरें। उस घड़े के ऊपर पहिनने के कपड़े या चोली रखे उसके ऊपर मंगलागौरी की प्रतिमा रखे। देवी के नजदीक सिल-लोढ़ा रखे इस प्रकार माता के लिए वायन दे।

हे विप्र ! इस प्रकार व्रत करने मात्र से सात जन्म तक सौभाग्य रहता है। पुत्र, पौत्र सम्पत्ति आदि से युक्त हो वह क्रीड़ा करती है।

सनत्कुमार ने ईश्वर से पूछा-हे शम्भो ! इस व्रत को पहले किसने किया? किसको इस व्रत को करने का क्या फल हुआ? ईश्वर ने कहा- हे विप्र ! पूर्वकाल में कुरुदेश में श्रुतकीर्ति नाम वाला शास्त्र ज्ञाता कीर्तिमान तथा शत्रु रहित राजा था।

वह चौंसठ कलाओं का जानकार, धनुर्विद्या विशारद था । पुत्र सुख को छोड़कर उस राजा को सब आनंद था। सन्तान के लिए राजा बहुत चिन्ताकुल हो गया। जप तथा ध्यान युक्त हो देवी की आराधना की।

उसके इस तप से देवी प्रसन्न होकर उससे बोली- हे पुत्र ! वर माँग । श्रुतकीर्ति ने कहा- हे देवी! आप यदि राजी हैं तो शोभन पुत्र दो। हे देवी! आपके कृपारूप प्रसाद से किसी अन्य चीज की कमी नहीं है। राजा की ऐसी वाणी की सुन मन्द मन्द हंसती हुई देवी ने कहा हे राजन्! तुम दुर्लभ वस्तु की याचना माँगते हो लेकिन कृपा कर तुमको पुत्र दूंगी।

हे राजेन्द्र! सुनो पुत्र अत्यन्त गुणी होगा- पर सोलह साल से अधिक नहीं जीवेगा। यदि सुन्दरता तथा विद्याहीन पुत्र होगा तो वह पुत्र बहुत समय तक जीवित रहेगा। देवी की वाणी सुन राजा चिन्ता करने लगा। उसने अपनी भार्या से विचार कर गुण विशिष्ट सम्पूर्ण लक्षण युक्त सोलह साल तक की आयु वाला पुत्र मांगा।

देवी ने उस समय भक्त राजा को आज्ञा दी कि हे नूपनन्दन! मेरे दरवाजे पर आम का पेड़ है। मेरी आज्ञा से उस आम के एक फल को लाकर अपनी पत्नी को खाने को दो, उसके खाने से उसी समय रानी निःसन्देह गर्भ धारण करेगी। राजा ने प्रसन्न हो देवी की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को आम्रफल दिया, उसके खाने से पत्नी ने गर्भ धारण किया, उससे दशवें महीने में देव तुल्य पुत्र पैदा हुआ।

हर्ष शोक से सम्पन्न राजा ने उस पुत्र का जातकर्म आदि संस्कार कर दिया और शिव स्मरण करते हुए ने उसका चिरायु नाम रखा। जिस समय उसे पिता सोलहवां साल प्रारम्भ हुआ, उसी दिन से सपत्नीक राजा को चिन्ता लगने लगी।

राजा ने विचार किया यह पुत्र बड़े ही कष्ट से प्राप्त हुआ है, अपने समक्ष इसकी दुःखद मृत्यु कैसे देखूँगा। अतः राजा ने पुत्र के मामा के साथ उसे काशी भेजने का प्रबन्ध किया। यशस्वनी राजपत्नी ने अपने भ्राता से कहा- तुम कार्पटिक वेष धारण कर इस लड़के को काशी ले जाओ। मैंने पूर्व में पुत्र प्राप्ति के निमित्त भगवान मृत्युञ्जय की विनती की थी।

हे विश्वेश! पुत्र को इसी समय ले जाओ। इसकी यत्न से रक्षा करना। वह अपनी बहिन की वाणी सुनकर भान्जे को साथ लेकर काशी गया।

रास्ते में जाते हुए कई दिन बाद आनन्द नगर पहुँचे वहाँ सम्पूर्ण समृद्धि से युक्त वीरसेन नाम का राजा था, उस राजा की कन्या सम्पूर्ण लक्षण सम्पन्न मंगलागौरी नाम वाली रूपलावण्य सम्पन्न थी।

उस समय वह बालिका सखियों सहित अपने गांव के समीप रमणीक बगीचे में खेल रही थी। उसी वक्त राजपुत्र ‘चिरायु’ तथा उसका मामा दोनों वहाँ पहुँच गये, वे दोनों बालिकाओं को देखने की इच्छा से ठहर गये। इतने ही समय में क्रीडा करती हुई उन बालिकाओं में से एक बालिका क्रोधित हो अत्यन्त कठिन दुर्वचन ‘रण्डा’ कहा। इस दुर्वचन को राजपुत्री ने सुनकर कहा- तुम अयोग्य वाणी क्यो कहती हो?

मेरे वंश में ऐसी स्त्री नहीं है। मंगलागौरी के वर प्रसाद से मंगलागौरी व्रत के प्रभाव मात्र से मेरे हाथ से चावल जिसके मस्तष्क पर गिरे हैं, सखि उसके साथ विवाह हो जाने पर यदि थोड़ी आयु वाला है तो भी चिरायु हो जायेगा। तदनन्तर सब बालिका अपने-अपने घर चली गई, उसी रोज राजकन्या का विवाह दिन था। बाल्हिदेह के दृढ़ धर्मा राजा के पुत्र सुकेतु नाम वाले को देना निश्चय हो चुका था।

वह सुकेतु मूर्ख, कुरूप तथा बहिरा था। अतः वर पक्ष वालों ने मंडल में अन्य अच्छा वर ले जाने का निश्चय किया। विवाह हो जाने पर वहाँ सुकेतु चला जायेगा।

यों विचार कर चिरायु के समीप जाकर उसने मामा से कहा यह बालक हमें दो क्योंकि आपके बालक द्वारा हमारा कार्य सिद्ध होगा। इस भूमि पर परोपकार के तुल्य अन्य कोई नहीं।

यह वाणी श्रवण कर उसका मामा हृदय से राजी हुआ क्योंकि इन्होंने पूर्व में वाटिका में बालिका की वाणी सुनी थी। लेकिन वर पक्षीय जनों से कहा-आप लोग इस बालक को क्यों चाहते हैं? कार्य सिद्ध के वास्ते वस्त्रालंकार आदि मांगा जा सकता है। आप लोगों के गौरवार्थ फिर भी मैं देता हूँ। उन्होंने चिरायु को वहाँ ले जाकर विवाह कार्य सिद्ध किया।

जब सप्तपदी आदि कार्य होने पर रात में गौरी शंकर के समीप वह चिरायु पुत्र सुप्रसन्न चित्त से राजकन्या, मंगलागौरी के साथ सो गया।

उसी रोज चिरायु का सोलहवाँ साल समाप्त था, उसी रात को सांप के रूप में काल वहाँ आया, इसी समय देवयोग से राजकन्या उठ गई। वह सर्प को देख भय विह्वल कांपने लगी। उस समय धीरता से राजकन्या ने सांप की पूजा सोलह उपचार से अर्चन कर पीने के लिए बहुत सा दूध दिया और दीन वाणी से उस सांप की स्तुति की।

मंगलागौरी ने प्रार्थना की कि मैं उत्तम व्रत करूंगी, मेरे पतिदेव उस सर्प से जीवित हों, ऐसा कीजिये। इस समय उस सांप ने कमंडलु में प्रवेश किया। अपनी कंचुकी (चोली ) से राजकन्या ने उस कमंडल r) का मुख बांधा, तदनन्तर उसके पतिदेव शरीर के अंगों को ऐंठते हुए जागकर उठे और अपनी पत्नी से कहा- हे प्रिये! मुझे भूख सता रही है।

उसने माता के समीप जाकर पायस लड्डू आदि लाकर पति को दिया। उसने प्रसन्नचित्त हो भोजन किया। हाथों को धोने के समय उसके हाथ से अंगूठी गिर गई। वह पान खाकर फिर सो गया।

फिर वह राजपुत्री कमंडलु पात्र को फेंकने गयी लेकिन विधि विधान से बाहर जाने पर चमकते हुए हार की कान्ति देख विस्मय को प्राप्त हो गयी। उस घट में स्थित हार को अपने कंठ में धारण किया। कुछ रात अब शेष रही तो चिरायु का मामा उसे ले गया।

चिरायु के जाने के बाद वर पक्षीय जन सुकेतु को ले गये, मंगलागौरी ने उस सुकेतु को देखा तो वह कहने लगी, यह मेरा स्वामी नहीं है।

सभी वर पक्षीय महानुभाव राजकन्या से कहने लगे हे शुभे! यह क्या कह रही हो? यदि कोई पहचान हो तो कहो मंगलागौरी ने कहा जिसने रात में नवरत्नों की निर्मित अंगूठी मुझे दी, वह इस अंगूली में देकर पहिचान करो। रात में स्वामी पतिदेव ने मुझे हार दिया है, उस हार के रत्नों की सुन्दरता कैसी है? यह बतावे ।

यह तो कोई अन्य ही है। रात्रि के समय जो बात-चीत हुई तथा भोजन क्या हुआ? उसे भी यह कहे तो यह मेरा पति होगा । यों मंगलागौरी की वाणी सुन सब लोगों ने कहा, ठीक है ठीक है।

लेकिन चिन्हों में से सुकेतु के बतलाये हुए एक की भी पहिचान नहीं मिली। तब सब लोगों ने मना किया। वरपक्षी जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। मंगलागौरी के पिता श्रुतकीर्ति ने प्रसन्नचित्त हो अन्न-जल आदि का एक सत्र यज्ञ किया तथा पक्षीय सब कथा कानों कान सुनी कि स्वरूप के कुरूप हो जाने से किसी को ले आये थे ।

महल के बरामदे में चिक के भीतर कन्या को राजा ने बैठाया। इस प्रकार एक साल यात्रा करते हुए अपने मामा के साथ वह फिर अपनी ससुराल का वृतान्त देखने के लिए आया। जब मंगलागौरी ने चिक के भीतर से उसे देखा तो लोकोत्तर प्रसन्न हो अपने माता-पिता से कहा मेरे प्रति आ गये।

सुहृद्गणों को बुलाकर राजा ने पूर्व कहे हुए सारी पहचान देख, पवित्र मुस्कान वाली पुत्री को चिरायु को दिया। शिष्य लोगों के सहित राजा ने विवाहोत्सव कर वस्त्राभरण आदि अश्व, गज, रथ तथा बहुत सी चीज दे दिया।

फिर वह चिरायु अपनी पत्नी एवं मामा के सहित कुलनन्दन सेना सहित अपने नगर गया। जब चिरायु के माता और पिताजी ने प्राणियों के मुखारविन्द से उसके आने का समाचर सुना तो विश्वास नहीं किया। क्योंकि भाग्य विपरीत कैसे हो सकता है। इसी बीच वह चिरायु माता तथा पिताजी के पास गया।

प्रेम मग्न हो चिरायु ने भक्ति द्वारा अपने माता-पिताजी के चरणों में प्रणाम किया और माता-पिता ने उसे चिरायु का मस्तक सूंघ कर परमानन्द प्राप्त किया। मंगलागौरी पुत्रवधु ने भी सास और श्वसुर को प्रणाम किया। पुत्रवधु को सास ने अपनी गोदी में बैठाकर सब बात पूछी। हे महामुने! मंगलागौरी पुत्रवधू ने श्रेष्ठ व्रत महात्म्य और जो कुछ इतिहास था सब कहा।

शिव, सनत्कुमार से । से कहते हैं हे सनत्कुमार! इस मंगलागौरी व्रत को आप से कहा। इसे जो सुनेगा या कीर्तन करेगा उसके सभी मनोरथ सिद्ध होंगे, इसमें संशय नहीं ।

श्रावण महात्मय अध्याय

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